कांग्रेस पार्टी का 85 वां अधिवेशन अभी पूरा नहीं हुआ है लेकिन अभी तक रायपुर में जो कुछ हुआ है, उसके बारे में क्या कहें? ढाक के वही तीन पात! इंदिरा गांधी के जमाने से देश की इस महान पार्टी के आकाश से आतंरिक लोकतंत्र का जो सूर्य अस्त हुआ था, वह अब भी अस्त ही है। इसमें कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व का दोष उतना नहीं है, जितना उसके अनुयायिओं का है। राहुल गांधी का तो मानना है कि कांग्रेस की कार्यसमिति चुनाव के द्वारा नियुक्त होनी चाहिए लेकिन रायपुर अधिवेशन में पार्टी की संचालन समिति ने सर्वसम्मति से तय किया है कि यह नियुक्ति कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ही करेंगे।जिन दो-तीन नेताओं ने शुरू में थोड़ी हिम्मत की और बोला कि कार्यसमिति के लिए चुनाव करवाए जाएं, उन्होंने भी झुण्ड के आगे मुण्ड झुका दिया। खड़गे ने भी कह दिया कि वह सोनिया, राहुल और प्रियंका से सलाह करके कार्यसमिति की घोषणा करेंगे। कांग्रेस के असली मालिक तो ये मां-बेटा और बेटी ही हैं। बाकी सब लोग तो कांग्रेस के अंग्रेजी संक्षिप्त नाम ( एनसी ) को चरितार्थ करते हैं। एनसी का अर्थ हुआ ”नौकरचाकर कांग्रेस ”। ये तीनों उस समय बैठक में जानबूझकर उपस्थित नहीं रहे, जब संचालन समिति कार्यसमिति के मुद्दे पर विचार कर रही थी । उन्हें पता था कि वहां उपस्थित सभी तथाकथित नेताओं की हिम्मत ही नहीं है कि वे अपने दम पर कोई फैसला कर सकेंगे लेकिन इस तथ्य के बावजूद यह सत्य काबिले-तारीफ है कि तीन बुजुर्ग नेताओं ने कार्यसमिति के चुनाव का आग्रह किया। इस मुद्दे पर ढाई घंटे बहस चली | यह बहस कुछ आशा बंधाती है। इससे जाहिर होता है कि सोनिया-परिवार थोड़ी छूट दे दे तो कांग्रेस का आतंरिक लोकतंत्र फिर से जिंदा हो सकता है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का तक काफी जानलेवा था। उन्होंने कहा कि जब कांग्रेस की प्रांतीय और राष्ट्रीय समिति का ही चुनाव नहीं होता है तो कार्यसमिति का चुनाव कैसे करवाया जा सकता है। कुछ हद तक यह ठीक भी है, क्योंकि कांग्रेस अभी अगले साल के आम चुनाव की तैयारी करे या आतंरिक दंगल में उलझ जाए? इस अधिवेशन का यह फैसला भी उसी दिशा में है कि अबकी बार 50 प्रतिशत सीटें अनुसूचितों , औरतों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और 50 साल से कम उप्र के लोगों के लिए रखी जाएंगी। जैसे राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी की नकल कर अपनी दाढ़ी बढ़ा ली है, उसी तरह राजनीतिक दांव-पेंचों में भी कांग्रेस मोदी का अनुकरण करती रहती है। मोदी ने पिछली बार पिछड़ों का राष्ट्रपति बनाया और इस बार एक आदिवासी महिला को यह पद दे दिया तो अब कांग्रेस भी भाजपा के मुकाबले वोट-बैंक की रणनीति अपना रही है।