यदि अगर मगर की घिसी और बेजान भाषा का उपयोग करके बला टालदी जाए, तो बैक है, सिविल सोसायटी के सुझावों की भूमिका अहमः मस्व्यमंत्री लेकिन हमारे हुक्मरानों में अभी भी सच को सच मान लेने की जूरा सी भी हिम्मत बाकी हो, तो पंफशेंश. * मोरबी पुल के हादसे के असली जिम्मेदार लोगों पर न सिर्फएफ आई आर दाखिल होनी चाहिए, बल्कि उनका हथकड़ी जुलूस भी निकाला जाना चाहिए, ताकि भविष्य में इस तरह के बेहरम लोगों की इस प्रकार के काम या आपराधिक लापरवाही करने से रूह कांपे । कई तर्क शास्त्री कह सकते हैं एक लोकतांत्रिक देश में बिना’ कोर्ट अदालत जाए किसी अंतिम नतीजे पर कैसे पहुंचा जा सकता है? ऐसे कानून के रखवाले लोग यह, तो बताएं कि कानून अपनी जगह है, लेकिन मानवीय जिम्मेदारी और संवेदना भी सरकार की ही होती है। बिलकिस बानू का केस भी गुजरात में हाल में ही हुआ था। तमाम हत्यारों और बलात्कारियों को कानून की आड़ लेकर पतली गली से सुरक्षित जाने ही नहीं दिया गया, बल्कि उनके लिए एक शर्म नाक सुरक्षा कवच भी बना दिया गया। मोरबी का पुल अधिकतम 50 लोगों का भार सह सकता था, लेकिन पर्व को भी धंधा बनाने में उस्ताद लोगों ने छठ पर्व की पूजा के दिन लगभग 500 टिकट प्रति व्यक्ति 7 रुपए में बेच दिए। इस पुल को झूलता हुआ पुल भी कहा जाता है। अब 500 लोगों के भार से उसे वैसे भी झूलना ही था। ऐसे में तो उसे मौत का पुल क्यों नहीं कहा जाए? बताया जा रहा है कि उक्त पुल लगभग 200 साल पुराना है, और इसमें पहले भी रिपेयरिंग की जाती रही है, लेकिन इस बार कहते हैं एक घड़ी बनाने वाली कंपनी को पुल का केबल बनाने का काम दे दिया गया। यह तो वैसा ही हुआ कि जैसे किसी प्लम्बर से गिरती दीवारें सुधर वालो । याद रखा जाना चाहिए कि जब उक्त पुल बनकर तैयार हुआ था, तब इसकी अधिकतम भारत संख्या 5 थीए जो आगे चलकर 00 कर दी गई। तब प्रति व्यक्ति फीस भी एक रुपया थी । उस पुल पर से मच्छू नदी के दृश्यों का आनंद लिया जाता रहा साथ ही सूर्य को अध्य भी चढ़ाया जाता रहा । सवाल है कि अधिकतम सौ की जगह 500 लोगों के पुल पर चढ़ जाने की अनुमति किसने और क्यों दी? बेशर्म तर्क दिया जा रहा है कि छठ पर्व पर सूर्य की आराधना करने के लिए आने वाली भीड़ को देखते हुए ऐसा पड़ा । क्या गजब! लोग मरते होंए तो मरते रहें। अपन तो नोट छापो । बताया जाता है कि इस पुल की मरम्मत के लिए तय समय सीमा से पहले ही उसे खोल दिया गया। इसका ठेका ओरेवा कम्पनी को दिया गया था, जो ई साइकिल भी बनाती है। संबंधित विभाग ने मुआयना किए बिना कंपनी को पुल खोले जाने का आदेश दे दिया। स्थानीय प्रशासन से सवाल बनता ही है कि उसने ठीक किए पुल की फाइनल जांच की थी या नहीं । मृतकों को छह लाख और घायलों को पचास हजार की सहायता देकर पिंड छुड़ा लिया गया है, लेकिन बताया जाता है कि पुल के नीचे इतनी गाद और नुकीले पत्थर थे कि राम जाने मरने वालों का आंकड़ा कितना होगा। यह पता नहीं लगाया जा सकता कि मौत और घायलों की सही संख्या कितनी है। अक्सर इस तरह के सही आंकड़े गोल माल कर दिए जाते हैं। इतिहास गवाह है कि इस तरह कीत्रासदियों की जिम्मेदारी तय नहीं की गई और तत्काल दोषियों के खिलाफएक्शन नहीं लिया गया, तो जनता को एक्शन लेना पड़ता है। मात्र अस्मिता और विकास के मॉडल के नाम पर आम जन भावना का कब तक बेजा फायदा उठाया जा सकता है। वैसे ही गुजरात में अभी तक विधान सभा चुनाव कार्यक्रम घोषित न किए जाने से भाजपा के साथ चुनाव आयोग कीतरफ भी शंका की | ऊंगली उठ रही है। भले आप पार्टी के अरविंद केजरीवाल चुनावी वादों के मुफ्त और बेमौसम ककड़ी भुट्टे बांट रहे हों लेकिन ज्यादा से ज्यादा वे भाजपा का रंग ही फीका कर पाएंगे ग्रेस कां के लिए तो यह फायदे का सौदा है। वह तो पिछले 2047 के विधान सभा चनाव में ही सरकार बनाने से मात्र 9 सीटों से दूर रह गई थी। इस बात की पूरी संभावना क्यों नहीं मानी जाए कि गुजरात में वोटर्स का गुस्सा एक ज्वाला मुखी का रूप लेता जा रहा है और जाहिर| है कोई भी ज्वालामुखी एकदम से नहीं फटता। अक्सर पहले उसमें से धुएं की मोटी लकीरें निकलती हैं जो अलार्म होती हैं।